हिंदी साहित्य में स्वदेश दीपक का अलग मुकाम है। यह मुकाम उनकी वर्षों की साहित्य साधना का परिणाम है। स्वदेश दीपक ने बड़ी कुशलता से नाटक, कहानी, उपन्यास, संस्मरण तथा टेली फिल्में आदी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है। उनके साहित्य का महत्वपूर्ण तथ्य मृत्यु है। आलोचकों का यह कहना था कि आत्महत्या और हत्या स्वदेश दीपक के पात्रों की अन्तिम परिणति हैं। उनके बारे में यह भी कहा जाता था कि लेखक अपनी हर रचना में अपने पात्रों के साथ भरी हुई बंदूक लेकर चलते हैं। आलोचकों की राय थी कि उनकी कहानियों चलते उनको पता चला कि रास्ते में बहुत सारे गढ्ढे हैं।
कुंजीपटल
साहित्य और समाज की पारिभाषिकी पर....
29 December 2021
15 October 2018
विधा क्या है?
१ . विधा क्या है?
सामान्यतः शैली, विषय-वस्तु, कथन-प्रकार, छान्दसता आदि के आधार पर किए गए साहित्य के प्रकारों को विभिन्न शैलियों में विभाजित किया गया है । आधुनिक समय में शैलियों के भीतर शैलियों का विकास होने के कारण यह पैमाना अब अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है । उसी प्रकार गद्य-पद्य में अन्तर अथवा काव्य के आपसी प्रकारों में आवाजाही के बढ़ने से विषय-वस्तु अथवा कथन प्रकार भी पैमाने के रूप में नहीं अपनाए जा सकते हैं । कोई आसानी से कह सकता है कि विधा के रूप में काव्य छन्दबद्ध होता है और गद्य नहीं; किन्तु इस विचार में भी अपूर्णता है, क्योंकि अब काव्य के लिए आवश्यक नहीं कि वह छन्दबद्ध हो और यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि गद्य का कोई छन्द नहीं होता है । यह सब छन्द की व्याख्या पर निर्भर करता है । केवल मात्राओं को गिनकर ठीक बैठाना छन्द नहीं होता । लयात्मकता छन्द का प्राण होती है और वह मात्राओं अथवा गद्य-पद्य पर आश्रित नहीं होती है । विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' कम लयबद्ध नहीं है, इसके विपरित मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ छन्दबद्ध होते हुए भी बातचीत लगती हैं । अतः छान्दसता विधाओं को अलग-अलग करने का कोई पैमाना नहीं है ।
तो ऐसी कौन-सी वस्तु है जो गद्य और पद्य को अथवा विभिन्न विधाओं को अलग-अलग करती है? हमें लगता है, सबसे पहले गद्य-पद्य में विभाजन के तौर पर 'विश्लेषण-संश्लेषण' को आधार बनाया जा सकता है । काव्य अपनी प्रकृति में अधिक विश्लिष्ट होता है । (यह बात कई विद्वानों ने पहले कही है, इसमें नया कुछ नहीं है ) और गद्य अधिक विश्लिष्ट अर्थात् विश्लेषण करनेवाली विधा के रूप में चिन्हित किया जा सकता है । वैसे यहाँ सामान्यीकरण से बचना चाहिए, क्योंकि गद्य और पद्य में यह विशेषताएँ अपना अतिक्रमण करते हुए भी सामान्य रूप से देखी जा सकती हैं, किन्तु इसे इन विधाओं की सामान्य विशेषताओं के रूप में मान्यता दी जा सकती है ।
विधा विभाजन द्वारा साहित्य अध्यताओं एवं पण्डितों को अध्ययन में सुविधा होती है, पाठकों पर शायद ही कोई प्रभाव पड़ता हो । कहा जाता है इसे फ्रेंच शब्द 'जेनेरे' से अंग्रेजी में लिया गया, जिसका अर्थ मोटे रूप से 'प्रकार' होता है ।
२. विधाओं के प्रकार:
साहित्य को अनेक विधाओं में विभाजित किया जा सकता है, किन्तु इसे परम्परा के अनुसार तीन विभागों रखा गया है:
भारतीय साहित्य चिन्तन में: अ) पद्य, आ) गद्य, और इ) चम्पू
पाश्चात्य साहित्य चिन्तन में: ए) पद्य, बी) गद्य, और सी) नाट्य
३ विधाओं की अनिवार्यता क्यों है?
जब छन्द का बन्धन टूट गया, तो विधाओं का बन्धन क्यों हो? वास्तव में साहित्य का लक्ष्य केवल उसका लिखा जाना या साहित्यकार का अभिव्यक्त होकर छप जाने तक सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य तब पूर्ण होता है, जब वे ठीक उन्हीं भावनाओं या विचारों को पाठक-श्रोता के बुद्धि एवं भावनाओं में उत्पन्न करने का प्रयास करता है, जो साहित्यकार अथवा लेखक-कवि के मन में उद्भुत हुए थे । ऐसे में विधाओं का बन्धन साहित्य को अधिक सम्प्रेषणीय बनाए रखने में सहायक होता है । यह विभाजन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए ही नहीं होता है, बल्कि साहित्यकार और पाठक के बीच बेहतर संवाद के लिए भी अनिवार्य होता है ।
कल्पना कीजिए 'गोदान' का होरी अचानक 'अन्धायुग' के प्रहरियों की भाँति पद्यमय संवाद बोलने लगे या फिर 'आधे-अधूरे' की सावित्री 'साकेत' की उर्मिला की भाँति अपने ही आँसूओं में नहाने लगे ! यह सही है कि इन रचनाओं की वैचारिक एवं भावनात्मक भूमि भिन्न है, किन्तु यह अन्तर विधाओं के कारण भी आया है, इस बात को भी ध्यान में रखना अनिवार्य है । जो विषय-वस्तु एक उपन्यास की होती है, वह एक कविता अथवा महाकाव्य की नहीं हो सकती है ।
विधाओं की अपना सामाजिक संबद्धता है । कई विद्वानों ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि आधुनिक काल में उपन्यास का उद्भव क्यों हुआ और महाकाव्य का अन्त क्यों हुआ? साहित्य-चिन्तक मानते हैं कि महाकाव्य सामन्ती समाज में ही लिखा जा सकता है और उपन्यास की रचना लोकतंत्र के अनुकूल है (और लोकतंत्र उपन्यास के) । इस तरह विधाओं के इतिहास को देखना केवल रूपवाद ही नहीं है, बल्कि उसके साथ साहित्य और समाज के अन्तर्संबंधों को भी परखा जा सकता है ।
४. साहित्य में विधाओं के उदाहरण:
अ) पद्य (पद्य के प्रकार होते हैं, उनके लिए अलग पोस्ट की जाएगी)
क) छन्दबद्ध:
और देखा वह सुंदर दृश्य,
नयन का इद्रंजाल अभिराम।
कुसुम-वैभव में लता समान,
चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार,
एक लम्बी काया, उन्मुक्त।
मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,
सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त। (-जयशंकर प्रसाद, कामायनी श्रद्धा सर्ग)
सामान्यतः शैली, विषय-वस्तु, कथन-प्रकार, छान्दसता आदि के आधार पर किए गए साहित्य के प्रकारों को विभिन्न शैलियों में विभाजित किया गया है । आधुनिक समय में शैलियों के भीतर शैलियों का विकास होने के कारण यह पैमाना अब अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है । उसी प्रकार गद्य-पद्य में अन्तर अथवा काव्य के आपसी प्रकारों में आवाजाही के बढ़ने से विषय-वस्तु अथवा कथन प्रकार भी पैमाने के रूप में नहीं अपनाए जा सकते हैं । कोई आसानी से कह सकता है कि विधा के रूप में काव्य छन्दबद्ध होता है और गद्य नहीं; किन्तु इस विचार में भी अपूर्णता है, क्योंकि अब काव्य के लिए आवश्यक नहीं कि वह छन्दबद्ध हो और यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि गद्य का कोई छन्द नहीं होता है । यह सब छन्द की व्याख्या पर निर्भर करता है । केवल मात्राओं को गिनकर ठीक बैठाना छन्द नहीं होता । लयात्मकता छन्द का प्राण होती है और वह मात्राओं अथवा गद्य-पद्य पर आश्रित नहीं होती है । विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' कम लयबद्ध नहीं है, इसके विपरित मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ छन्दबद्ध होते हुए भी बातचीत लगती हैं । अतः छान्दसता विधाओं को अलग-अलग करने का कोई पैमाना नहीं है ।
तो ऐसी कौन-सी वस्तु है जो गद्य और पद्य को अथवा विभिन्न विधाओं को अलग-अलग करती है? हमें लगता है, सबसे पहले गद्य-पद्य में विभाजन के तौर पर 'विश्लेषण-संश्लेषण' को आधार बनाया जा सकता है । काव्य अपनी प्रकृति में अधिक विश्लिष्ट होता है । (यह बात कई विद्वानों ने पहले कही है, इसमें नया कुछ नहीं है ) और गद्य अधिक विश्लिष्ट अर्थात् विश्लेषण करनेवाली विधा के रूप में चिन्हित किया जा सकता है । वैसे यहाँ सामान्यीकरण से बचना चाहिए, क्योंकि गद्य और पद्य में यह विशेषताएँ अपना अतिक्रमण करते हुए भी सामान्य रूप से देखी जा सकती हैं, किन्तु इसे इन विधाओं की सामान्य विशेषताओं के रूप में मान्यता दी जा सकती है ।
विधा विभाजन द्वारा साहित्य अध्यताओं एवं पण्डितों को अध्ययन में सुविधा होती है, पाठकों पर शायद ही कोई प्रभाव पड़ता हो । कहा जाता है इसे फ्रेंच शब्द 'जेनेरे' से अंग्रेजी में लिया गया, जिसका अर्थ मोटे रूप से 'प्रकार' होता है ।
२. विधाओं के प्रकार:
साहित्य को अनेक विधाओं में विभाजित किया जा सकता है, किन्तु इसे परम्परा के अनुसार तीन विभागों रखा गया है:
भारतीय साहित्य चिन्तन में: अ) पद्य, आ) गद्य, और इ) चम्पू
पाश्चात्य साहित्य चिन्तन में: ए) पद्य, बी) गद्य, और सी) नाट्य
भारतीय साहित्य चिन्तन में नाट्य को तब तक काव्य के ही भीतर माना गया जब तक नाट्य-संवाद पद्यमय रहे, जब वे गद्यमय हो गये तो नाट्य के विभिन्न प्रकारों को (काव्य-नाट्य अथवा गीती-नाट्य को छोड़कर) गद्य के भीतर माना जाने लगा । इस कारण भारतीय साहित्य चिन्तन में नाट्य को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थान नहीं दिया गया है । चम्पू गद्य-पद्य के मिश्रित रूप को कहा गया है । 'गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते' (साहित्यदर्पण, ६ / ३३६ ) वर्तमान समय में गद्य-पद्य की विभाजन रेखा भी धुँधली हो गयी है। वक्तृत्व एवं पाठन शैली अच्छी भली लयपूर्ण (छन्दबद्ध होना अनिवार्य नहीं है) कविता को गद्य बना सकती है और गद्य को काव्यमय रूप में प्रस्तुत कर सकती है ।
३ विधाओं की अनिवार्यता क्यों है?
जब छन्द का बन्धन टूट गया, तो विधाओं का बन्धन क्यों हो? वास्तव में साहित्य का लक्ष्य केवल उसका लिखा जाना या साहित्यकार का अभिव्यक्त होकर छप जाने तक सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य तब पूर्ण होता है, जब वे ठीक उन्हीं भावनाओं या विचारों को पाठक-श्रोता के बुद्धि एवं भावनाओं में उत्पन्न करने का प्रयास करता है, जो साहित्यकार अथवा लेखक-कवि के मन में उद्भुत हुए थे । ऐसे में विधाओं का बन्धन साहित्य को अधिक सम्प्रेषणीय बनाए रखने में सहायक होता है । यह विभाजन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए ही नहीं होता है, बल्कि साहित्यकार और पाठक के बीच बेहतर संवाद के लिए भी अनिवार्य होता है ।
कल्पना कीजिए 'गोदान' का होरी अचानक 'अन्धायुग' के प्रहरियों की भाँति पद्यमय संवाद बोलने लगे या फिर 'आधे-अधूरे' की सावित्री 'साकेत' की उर्मिला की भाँति अपने ही आँसूओं में नहाने लगे ! यह सही है कि इन रचनाओं की वैचारिक एवं भावनात्मक भूमि भिन्न है, किन्तु यह अन्तर विधाओं के कारण भी आया है, इस बात को भी ध्यान में रखना अनिवार्य है । जो विषय-वस्तु एक उपन्यास की होती है, वह एक कविता अथवा महाकाव्य की नहीं हो सकती है ।
विधाओं की अपना सामाजिक संबद्धता है । कई विद्वानों ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि आधुनिक काल में उपन्यास का उद्भव क्यों हुआ और महाकाव्य का अन्त क्यों हुआ? साहित्य-चिन्तक मानते हैं कि महाकाव्य सामन्ती समाज में ही लिखा जा सकता है और उपन्यास की रचना लोकतंत्र के अनुकूल है (और लोकतंत्र उपन्यास के) । इस तरह विधाओं के इतिहास को देखना केवल रूपवाद ही नहीं है, बल्कि उसके साथ साहित्य और समाज के अन्तर्संबंधों को भी परखा जा सकता है ।
४. साहित्य में विधाओं के उदाहरण:
अ) पद्य (पद्य के प्रकार होते हैं, उनके लिए अलग पोस्ट की जाएगी)
क) छन्दबद्ध:
और देखा वह सुंदर दृश्य,
नयन का इद्रंजाल अभिराम।
कुसुम-वैभव में लता समान,
चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार,
एक लम्बी काया, उन्मुक्त।
मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,
सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त। (-जयशंकर प्रसाद, कामायनी श्रद्धा सर्ग)
ख) छन्दमुक्त/मुक्तछन्द
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार। (निराला, तोड़ती पत्थर)
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार। (निराला, तोड़ती पत्थर)
आ) गद्य: किसी भी भाषा में लिखित गद्य के प्रकारों से उदाहरण ।
इ) चम्पू: मैथिलीशरण गुप्त का 'यशोधरा' हिन्दी में चम्पू-काव्य का उदाहरण माना जाता है ।
ई) नाट्य (नाट्य के कई प्रकार होते हैं, जिनकी चर्चा अगली पोस्ट में)
हिन्दी के एक नाटक का दृश्य आप यहाँ देखकर इस विधा की प्रकृति का अन्दाजा लगा सकते हैं:हिन्दी नाटक कोर्टमार्शल का एक दृश्य
५. पॉप कल्चर में विधाएँ:
विधाएँ केवल साहित्य में ही नहीं होती हैं, बल्कि संगीत, मूर्तिकला आदि में भी विधाएँ होती है । जैसे संगीत में लोक, शास्त्रीय, जैज़, पॉप, भांगड़ा, लोवणी, पोवाड़ा, आदि कई कई प्रकार होते हैं । इसमें भी देशी-विदेशी का भेद किया जा सकता है, किन्तु उत्तर-आधुनिकता ने सब गड्ड-मड्ड कर दिया है । उसी प्रकार फिल्मों में सामाजिक, कामदी, त्रासदी, गीताधारित (म्यूज़िकल), नृत्यआधारित, ड्रामा, एक्शन आदि प्रकार की विधाएँ होती हैं । टेलीविजन के सिरियल्स में भी प्रकार होते हैं, यथा: ऐतिहासिक (शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान, टीपू सुल्तान आदि), फैन्टसी (अलिफ लैला, नागिन जैसे), पौराणिक (रामायण, महाभारत, जय हनुमान, ओम् नमः शिवाय, देवों के देव महादेव आदि), पारिवारिक (अनगिनत उदाहरण), शैक्षणिक (कौन बनेगा करोड़पति जैसे ) ।
इसी प्रकार समाचारों के भी प्रकार या विधाएँ होती हैं । खेलों में भी विधाएँ होती हैं, टेस्ट क्रिकेट, एकदिवसीय, या २०-२० इसके उदाहरण हैं ।
13 August 2018
महाराष्ट्र के क्रांतिकारी 'क्रांतिसिंह'
ब्रिटिश सत्ता से #आज़ादी पाने के लिए भारतीयों ने कई रास्तों, विचारधाराओं और पद्धतियों से कोशिशें कीं. उनमें से तीन-चार पद्धतियों को इतिहास की मुख्यधारा में जगह मिली. जैसे #गाँधीजी की पद्धति, #भगतसिंह की पद्धति, #नेताजी की राह या कुछ मिली-जुली पद्धतियाँ.
महाराष्ट्र में 'क्रान्तिसिंह' के नाम से जाने जानेवाले #नाना_पाटिल महाराष्ट्र में न सिर्फ क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रमुख नेता थे, बल्कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती देते हुए सातारा जिले को स्वतंत्र घोषित कर 'प्रति सरकार' नाम से सरकार की स्थापना की. यह सरकार वो सब काम किया करती थी, जिसके करने की उम्मीद किसी लोकतंत्र में सरकार से की जाती थी. यह प्रति सरकार किसानों के लिए कर्ज़, खेती उत्पादन के लिए बाजार की व्यवस्था, किसानों को तंग करनेवाले साहूकारों के लिए सज़ाएं, न्यायालय आदि की व्यवस्था भी करती थी.
समाज में जागृति लाने के लिए लेखकों को पेन्शन और धनराशि मुहैय्या कराई जाती. इस सरकार का नारा था 'हम अपना मुल्क ख़ुद संभाल लेंगे'
विवाह की साधी और दहेजमुक्त पद्धति को नाना पाटिल 'गांधी-विवाह' के नाम से प्रसारित करते थे.
नाना पाटिल ने अपनी सरकार और आज़ाद प्रदेश की रक्षा के लिए "तूफ़ान सेना" नाम से प्रशिक्षित आर्मी (सेना) बनाई थी, जो ब्रिटिश सेना पर न सिर्फ हमले करती थी, बल्कि पोस्ट, टेलिफोन आदि सुविधाओं को बाधित भी करती थी. इस सेना का आज़ाद प्रदेश में अत्यंत आदर था, क्योंकि उन्हें आर्मी प्रशिक्षण के साथ नाना पाटिल ने शाहू महाराज, ज्योतिबा फूले और छत्रपति शिवाजी महाराज के मूल्यों से परिचित करवाया था. #प्रति_सरकार को सामान्य जनता 'पत्री सरकार' कहती थी. जनता का मानना था कि तूफान सेना ब्रिटिश अधिकारियों को अगवा कर उनके तलुवों में 'पत्री' यानी लोहे का टुकड़ा ठोक देती है.
#वारकरी मिजाज़ के नाना पाटिल ने १९२० के आसपास अपनी तलाठी (तहसीलदार जैसे) का पद छोड़कर राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय भाग लेना आरंभ किया. आरंभ में गांधी से प्रभावित नाना पाटिल १९३० के बाद क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ मुड़ते चले गए. बाद में वे मार्क्सवाद के राहगीर बने. 'प्रति सरकार' की स्थापना के कारण वे 'मोस्ट वांटेड' रहे होंगे, इसमें दो-राय नहीं. रिकॉर्ड के मुताबिक १९२०-४२ के दौरान वे ८ से १० बार जेल भेजे गए. १९४२-४६ के बीच 'तूफान सेना' की अति-सक्रियता, सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें अंडरग्राउंड होना पड़ा. ब्रिटिश सरकार ने उनकी जानकारी देनेवाले को इनाम घोषित किया. उनके घर और ज़मीन को जप्त कर लिया. अज्ञातवास के दौरान ही उनकी माताजी की मृत्यु हुई, पुलिस से बचते हुए उन्होंने अपनी माताजी की अंतिम यात्रा में भाग लिया..
#स्वतंत्रता के बाद #संयुक्त_महाराष्ट्र_आंदोलन में भी उनका सक्रिय सहभाग रहा. स्वातंत्र्योत्तर भारत में 'शेतकरी कामगार पक्ष' (किसान मजदूर पार्टी) और 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' के माध्यम से कार्य किया. १९५७ में वे उत्तर सातारा लोकसभा सीट से तो १९६७ में बीड लोकसभा सीट से सांसद चुने गए. भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य की संसद में #मराठी में भाषण करनेवाले वे पहले सांसद हैं.
12 November 2014
गाँव, सहअस्तित्व और खेल
बचपन की यादों से एक
रोमांच सा भर जाता है देह में । जैसे अन्य बातों में अन्तर है, उसी तरह और उन्हीं
कारणों से गाँव और शहर के बचपन में अन्तर है । शहर जैसे घरों-गाडियों के कारण ही
नहीं, शहरी मानसिकता के कारण गाँव वह गँवारपन भी खोता जा रहा है, जो उसकी शान तो
था, लेकिन शहरी जिसका गाली की तरह प्रयोग करते थे – गँवार या गँवारू कहकर । टीवी,
गाडियाँ, कुछ घरों में कम्पूटर या कुछ हाथों में मोबाईल (कुछ कुछ स्मार्ट) आ जाने
से गाँव जरूर बदले हैं, लेकिन बहुत सी बातें अभी भी वैसी ही हैं । मैं गाँव जाता
हूँ तो अब वह सबकुछ नहीं करता हूँ, जो किया करता था । लेकिन देखता हूँ मेरे मामाजी
के लड़के अपने दोस्तों के साथ मिलकर वही सब करते हैं । वो अब भी सुबह चार-पाँच बजे
जग जाते हैं । अभी भी वे घर में टीवी छोड़कर अपने दोस्तों के घर क्रिकेट का मैच
देखते हैं । अब भी वे हर रविवार रेल्वे ट्रैक से सटी जगह को क्रिकेट खेलने के लिए साफ
करते हैं और उसके बाद कबड्डी खेलकर मिट्टी से सना अपना शरीर तालाब में भैंसों के
साथ छोड़ देते हैं । भैंसों की पूँछ पकड़कर तैरना सीखते हुए वे उस पर चढ़ जाते हैं
। मैं देखता हूँ वह टेलिफोन का खंभा मोबाईल टावर्स को धत्ता बताते हुए अभी भी उस
तालाब के बीचो-बीच खड़ा है, जिस पर चढ़कर पानी में कूदने की हम शर्त लगाया करते
थे, जिसकी अब हिम्मत नहीं रही । लेकिन उस खंभे पर अब कोई तार नहीं बचा है, अकेला
तनहा खंभा अब संदेशों का वाहक नहीं रहा ।
मामी सुबह चार बजे जग जाती है, रोटी, सब्जी और
घी बनाते हुए उसकी फुर्ती बताती है कि वह कम-से-कम मन से तो कभी नहीं थकती । चूँकि
हमारे गाँव में नाश्ता (ब्रेकफास्ट) का अभी भी चलन नहीं है, इसलिए सुबह छ-सात बजे
उठकर मामाजी दो-तीन ज्वारी की रोटियाँ (जो बीसेक फुलकों के बराबर होते हैं) साफ कर
जाते हैं । इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनके बच्चे कितना कम खाते होंगें । अब
तक तो मामी खेत जा चुकी होती है । ये मेरी समझ में अभी तक नहीं आया कि जब रोटी
चुकी होती है, तो वह क्यों नहीं अपने साथ खेत ले जाती है । दोपहरिया होते-होते बच्चे
निकलते हैं अपने माता-पिता को खेत में रोटी पहुँचाने । बच्चे किसी सवारी पर नहीं
निकलते, बल्कि सायकल के टायरों को बेहया के डंठल से मारते हुए चलाते हैं और मानों
उसकी सवारी करते हुए खेतों तक जाते हैं । वापसी में उनके हाथों में
गायों-भैंसों-बकरियों के लिए चारा होता है । शायद वे खाना पहुँचाने नहीं, खाना
लाने गए थे । खाना उनके लिए जिन्होंने उन्हें अपने दूध से सींचा है ।
अपनी माँ के जितने वे इन जानवरों के भी
उतने ही कर्जदार होते हैं, जितने की उनके बछड़े-छौने । आह...वो बचपन का नहाना..।
शहरों में बाथटब होता है । यहाँ गावों में माँ अपने बच्चों को एक बड़े से पतिले
में बैठा देती हैं । जिसमें बैठकर बच्चा पानी में छपाक्-छपाक् करता रहता है । फिर
होती है, सर की मालिश...। बच्चा बहुत छोटा हो तो नहाने से पहले मालिश, फिर सनबाथ
और फिर वाटरबाथ । आह...कितने सुहाने दिन होते हैं । सुबह में दही रोटी तो रात में
घी भात । दोपहर भर खेत से आई हुई मुँगफलियाँ, बेर, अमरूद, गन्ने, मुंग की
फल्लियाँ, अरहर की फल्लियाँ, लाल-लाल टमाटर, हरे चने के डंटहल और न जाने क्या-क्या
। मुझे अचरज तो इस बात का लगता है कि हल को अपने कंधे पर खींचकर ले जाने वाला बैल
आठ-दस साल के बच्चे के रस्सी थामने पर उसके पीछे-पीछे कैसे चलता है । अपने में कई
सभ्यताओं को निगलजानेवाली धरती का सीना एक अदना सा बीज कैसे चीरकर बाहर निकलता है
‼ कैसे गाय-भैंस अपने बच्चों के हिस्से का दूध इन्सान के बच्चों को निर्मोह भाव से
ले लेने देती है । कैसे दिन भर काम करने के बाद मामी अभी भी गाय-बैलों का
साना-पानी अपने परिवार वालों से पहले करती है । कैसे सालभर का हिसाब-किताब मामाजी
की जुबाँ पर चढ़ा रहता है ‼
पैदा होते ही बछड़ा कितना कूदता है,
क्या ये बच्चे भी ऐसा ही नहीं करते ? हमारे गाँव में एक ऐतिहासिक खेल खेला जाता
है, जिसका कोई लिखित-मौखिक इतिहास उपलब्ध
नहीं है । उसे कहते हैं – डफ । एक खेल का एक सदस्य अपनी एक टाँग उठाकर एक लकड़ी दूसर
फेंकता है, दूसरा उसे दौड़कर लाकर पेड़ के नीचे बने हुए एक घेरे में रखता है । तब
तक दस-पाँच बच्चे पेड़ पर चढ़ जाते हैं और
वह लकड़ी लानेवाला बच्चा पेड़ पर चढ़कर जिसे छू लेता है, अगली बार उसे लकड़ी लाने
के लिए दौड़ना पड़ता है...लेकिन यदि पेड़ पर चढ़नेवालों में से कोई किसी भी टहनी
से उतरकर या पेड़ से कूदकर उस लकड़ी को जमीन पर बने घेरे के बाहर लकड़ी को निकालता
है, तो उसी लड़के को फिर से लकड़ी लाने के लिए दौड़ना पड़ता है । इस खेल में कई
बच्चे अपने हाथ-पैर तोड़ लेते हैं । ऐसों का ईलाज करते हैं, गाँव के हकीम । टूटे
हुए हाथ या पैर को पैंतालिस दिनों तक बाँस से कस दिया जाता है । अब वैसे डॉक्टर आ
गए हैं, जो प्लास्टर कर देते हैं ।
इस मामले में लड़कियाँ भी कम नहीं हैं, वे लिगोर्चा नामक खेल खेलती हैं और
अपने-आप को जख्मी कर लेती हैं । इसमें होता यह है कि जमीन पर बने घेरे में
चार-पाँच छोटे-छोटे पत्थरों को एक-के-ऊपर-एक रखा जाता है । तय दूरी से एक कपड़े से
बनी गेंद से उसे गिराया जाता है । गिराने के लिए एक टीम के सदस्य को तीन-तीन मौके
मिलते हैं, यदि पहली टीम नहीं गिरा पायी तो दूसरी टीम । जब ये पत्थर गेंद से गिर
जाते हैं, तो उसे उसी टीम को उसी घेरे में सजाना पड़ता है, किन्तु इसने में आगे
वाली टीम उसी कपड़े की गेंद से उन्हें पीटती है और पत्थरों को जमाने नहीं देती हैं
।
लड़कों का एक और खेल था, जो गर्मियों की छुट्टियों में खेला जाता था । जिसे
पत्ते कहा जाता है । माचीस की डिबिया को ऊपरी और नीचले भाग से यह पत्ते बना करते
हैं । इस खेल में हर सदस्य तय मात्रा में अपने-अपने पत्ते मिलात है, जिसे जमीन पर
बने घेरे में रकखर मिट्टी से पूरी तरह ढँक दिया जाता है । फिर तय दूरी से पत्थर
द्वारा उस मिट्टी के ढेर को चीरते हुए पत्तों को उस घेरे से बाहर निकालना होता था
। एक बार में जितने बाहर हुए वह सारे उसी के । इसके बाद दूसरा सदस्य । कंचे और
गिल्ली-डंडा भी हमारे यहाँ जमीन पर घेरा बनाकर ही खेला जाता है । मेरी समझ में अभी
तक नही आ पाया कि लगभग सारे खेलों में जमीन पर घेरा ही क्यों बनाया जाता होगा, या
कि जमीन पर ही क्यों ?
वैसे इन खेलों में जेंड़र
उतना मायने नहीं रखता । लड़कियों की अपनी कबड्डी की टीमें हुआ करती हैं, लेकिन एक
उम्र तक ही । बाकी खेलत तो वे शादी के बाद तक भी खेलती हैं । बच्चों-गिरस्ती से
समय मिले तो ।
अब शहरों के लोग फर्श से जमीन को ढँक देते हैं, तो उनके बच्चे कहाँ
खेलेंगें ये सारे खेल । वो तो व्हीडिओ गेम ही खेलेंगे न? वे और उनकी वर्च्युअल
दुनिया...हम और हमारी जमीनी दुनिया का बचपन..बस यहीं तक । बाक़ी खेलों की यादें और
कभी...
दास्ताँ-ए-श्वान
(छायाचित्र-हैदराबाद विश्वविदयालय परिसर)
हमारे हैदराबाद विश्वविद्यालय में जैसे अन्य जानवर रहते हैं, वैसे ही बहुत सारे कुत्ते हैं । यूँ तो कुत्तों की कोर कमेटी उन्हें इन्सान कहा जाना गाली मानती है । अब आप कहेंगें कि भाई तुम्हें कैसे पता कि वो क्या मानते और कहते हैं, क्या तुम उनकी बोली समझते हो, हो सकता है समझता हूँ । लेकिन जब उनकी किसी गलती पर उन्हें कुत्ते कहा जाए तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है, और वो अपने इस अच्छे लगने का इज़हार उस चीज़ को हिलाकर करते हैं, जो इन्सानों के पास होती नहीं है या फिर नज़र नहीं आती, जिसे पूँछ भी कहा जाता है । वैसे ये कुत्ते किसी को काटने का कोई भी किस्सा न इतिहास में है और न भविष्य में इसके घटित होने की संभावना नज़र आती है । इसका कारण है दोनों में अगाध प्रेम, अपनत्व...कई बार चुम्मा - चाटी आदि आदि...। अब इन्सान उनके गुण तो नहीं ले सका, लेकिन कुत्तों ने इन्सानों के
भी बहुत सारे गुण सीख लिए...‼ जैसे ये अभी भी फैका हुआ खाना नहीं खाते, या केक भी इन्हें हाथों से खिलाना पड़ता है । खैर । इन्सानों ने इन्हें कभी खाद्यान्न की कमी नहीं होने दी ।
वैसे इनमें भी इन्सानों ने कैटगरी बना दी है, वैसे इसे कोई कानून भले ही न मानता हो, लेकिन कुत्तों ने इसे लगभग स्वीकार कर लिया । कुछ कुत्ते कुछ मनुष्यों लोगों के ही प्रेम के पात्र हैं । जैसे बहुत सारे बालों वाले कुत्तों को लड़के पसन्द करते हैं, पूरे तौर पर या कोई एक पूरा रंग होनेवाले कुत्तों को ही यहाँ अधिक पसन्द किया जाता है । मिले जुले रंग या एक से अधिक रंगवाले कुत्तों को यहाँ अधिक पसन्द नहीं किया जाता है । इसका नतीजा यह हुआ कि कुत्तों ने भी अपने में एक व्यवस्था बना ली । एक कैटगरी उत्तर कैम्पस और दक्षिण कैम्पस को लेकर बनी । दूसरी रंग की एकता या अनेकता को लेकर बनी ।
शॉपिंग कॉम्पेक्स का गुट, गोप्स (इन्सानों के खाना खाने की जगह) वाला गुट, पुस्तकालय और रीडिंग रूम का गैंग, उसके बाद सबकैटगरीज़ में हर हॉस्टेल के मेस वाला अलग गुट था । इसमें भी शॉपकॉम पर विशिष्ट कुत्ते रहते थे, गोप्स वाले भी विशिष्ट ही थे, लेकिन उन्हें बचा हुआ खाना ही खाना पड़ता था । बाकी कुत्ते इन दो कैटगरीज़ पर इसलिए कुढ़ते रहते थे कि उन्हें केक, काजूवाले बिस्किट, विभिन्न प्रकार के पफ और तो और कभी-कभी मीठा पान तक खाने को मिल जाता था । सबसे बेचारी कैटगरी मेस (मनुष्यों का सार्वजनिक भोजनालय) के पीछे वाले कुत्तों की होती थी । देश के प्रत्येक सार्वजनिक स्थानों की तरह इन बेचारों को भी हर मौसम की मार झेलनी पड़ती थी । इससे भिन्न एक कैटगरी साँकल में बँधी कुत्तों की है, जो प्रोफ़ेसरान-कार्यालयीन इन्सानी कर्मचारियों के बिस्तरों पर सोती है, इन्हें कैम्पस के अन्य कुत्ते इन्सान कहते हैं । कुत्तों के अनुसार उनका मानुषीकरण हो गया है ।
इन सारी कैटगरियों के कुत्तों में हमारी कहानी के नायक सबसे ऊँचे दर्जेवाले हैं और उनके ठीक नीचे वाले दर्जे में आती है नायिका । क्यो? अरे भई नायिका हमेशा नायक से नीचे के ही दर्जे में आती है, विश्वास नहीं होता? अब आपने संस्कृत काव्यशास्त्र या महाकाव्य-नाटक नहीं पढ़े हैं तो इसमें मेरा क्या दोष है !! अब इतनी पीढ़ियों से इन्सान का पालतू होते-होते कुत्तों ने भी इसी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है । खैर । हमारा नायक है फिलिप और नायिका का नाम है काजल । ना...ना....ना...ये दोनों एक दूसरे से प्रेम नहीं करते हैं । इन दोनों में कोई खलनायक (विलेन) भी नहीं है । दोनों एक ही गुट के सदस्य हैं । बस इतना ही सम्बन्ध है दोनों का । शॉपकॉम वाले सबसे बेटर कैटगरी के अन्दर ये आते हैं, खूब प्यार पाते हैं और खूब प्यार बाँटते हैं ।
फिलिप तो अंग्रेजी बचपन से ही सीख गया था । काजल हिन्दी बहुत बेहतर जानती थी, और तोड़ी बहुत तेलुगू भी । जब से नारीवाद ने कैम्पस के इन्सानों में प्रवेश किया, तब से काजल की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा था । इस बात का बराबर ध्यान दिया जाता था कि उसे भी फिलिप के बराबर प्यार और इन्सानी अन्न के विभिन्न प्रकार मिले । काजल की जिन्दगी अब उतनी ही बेहतर हो चली थी, जितनी कि फिलिप की । जब पेट का बेहतर इन्तजाम होने लगा और स्टेटस् भी मिलने लगी तो फिलिप को भी इसका अहसास होने लगा कि काजल अपने लिए एकदम फिट रहेगी ।
इससे फिलिप को तो प्यार हुआ और तीसरे को ही चिन्ता होने लगी । बेगानी शादी में हमेशा अब्दुला ही दिवाना ही क्यों होता है, पता नहीं ।
मानवीकरण की प्रक्रिया के तहत फिलिप ने काजल को प्रपोज़ किया होगा, वर्ना वे कई घंटों तक किसी इमारत के पीछे क्या करते ! तो प्यार परवान चढ़ रहा था । लेकिन इधर इस कहानी के अब्दुल्ला को खौफ़्त होने लगी । दरअसल हुआ यह कि एक तो काजल की इन्सानों में लोकप्रियता बढ़ने लगी और जब से वह फिलिप के साथ रहने लगी तो लोगों को उनकी जोड़ी खूब सुहाती, और वे लपककर उन्हें केक आदि खास-खास चीज़े खाने देते । जब तक यह स्थिति नहीं आयी थी तब तक अब्दुल्ला साहब प्यार और खाने की प्रतियोगिता में दूसरे नंबर पर थे, लेकिन अब उनके ग्राफ में अब तेज़ी से गिरावट आने लगी । उन्हें खाने ही नहीं मिल रहा था । उन्हें भी अब निम्न मानीजानेवाली कैटगरी के कुत्तों के साथ मेस का बचा कुचा खाने पर मजबूर होना पड़ रहा था । वे चुप कैसे रहते, उन्होंने तय किया कि इस प्रश्न को कोर कमेटी (ACDCC) के सामने प्रस्तुत करे । उन्होंने कमेटी की मीटिंग बुलाई ।
तय भारतीय समय के अनुसार एक-दो तो कोई चार घंटे की देरी से सारे सदस्य जमा हो गए ।
“देखो भाई, हमारे यहाँ चालीस-पैंतालीस सालों से जो सिस्टम चला आ रहा है, उसे बदला नहीं जा सकता ।” – अब्दुल्ला ने गंभीर मुद्रा में कहा और सब उतनी ही गंभीर मुद्रा से सुनने लगे थे । कुछ लोग इन बातों पर ध्यान न देकर अपनी अलग ही गपशप में व्यस्त थे । व्यस्त रहनेवालों में साउथ कैम्पस ग्रुप की कुछ छोटी-छोटी कुतिया और कुछ बूढ़ी कुतिया थी ।
“तुम्हें पता है, इसके बाल कितने मुलायम हैं, ये जब बारिश में भीगकर अपने बाल झाड़ता है न, तो बिल्कुल अक्षय कुमार लगता है ।” काली पूँछकटी सुरैय्या ने आहें भरते हुए कहा ।
“अरी ऐसा न बोल, उसे बुरा लग जाएगा इन्सान के साथ उसकी बराबरी करो तो, वैसे वो अक्षय कुमार लगता है नहीं.... लगता था, अब तो अमरिश पुरी लगता है..... ।” लता ने खिलखिलाते हुए अपना वाक्य समाप्त किया ।
जब भी इस खुसर-पुसर की ओर ध्यान जाता तो अब्दुल्ला के तलवों की आग पेशानी पर चढ़ जाती । उसने सोचा पिछले कई दिनों से कुत्तों की संस्कृति भ्रष्ट हो रही है । वो इसके लिए युवाओं से अधिक वृद्धों को जिम्मेदार मानता आ रहा था । उसके अनुसार वृद्धों ने अपने युवाओं को ज्यादा आज़ादी देकर उन्हें बिगाड़ दिया है । उसे याद है, इसी संस्कृति के चलते उसने और उसके साथियों ने इन्सानों के साथ सह-अस्तित्व बनाया था । लेकिन इन्सान भी ऐसे ही होते चले गए हैं कि संस्कृतिविहीन कुत्तों को ही अधिक पसन्द करने लगे हैं । लेकिन एक अच्छा नेता होने के नाते उसे हमेशा लगता था कि प्राचीन संस्कृति को बचाए रखे, जो उसे दादा-पिता से मिली थी । उसे पता था कि एक दिन वो ऐसा करने में कामयाब होगा । उसे इस बात का पता है कि उसकी संस्कृति में इन्सानों को काटना नहीं था और इसे इन युवाओं ने भी स्वीकार किया है । उसे याद है कि उनके इन मूल्यों से जलकर बाहर के कुत्तों ने उनके कैम्पस के पिछले दरबाजे से ज़बरदस्ती घुसकर इन्सानों को काट लिया था, ऐसे आपातत्काल में प्रशासन ने उन्हें ही पकड़ने की मोहिम चला दी थी और उन्हें कई दिनों तक गायब होना पड़ा था । इस स्थिति से उसकी संस्कृतिनिष्ठता ने उन्हें फिर से अपनी साख़ बनाने में काम आयी थी । लेकिन आज के युवा खुल्लम खुल्ला प्रेम करते हैं, किसी भी कैटगरी में प्रेम करते हैं, एक से दूसरी कैटगरी में जाते हैं, और कैटगरियों को मानते ही नहीं है ।
अपनी इन चिन्ताओं को अब्दुल्ला बताए जाता था, किन्तु शायद ही कोई सुन रहा होगा । लेकिन ऐसे भी कुत्ते थे जो अब्दुल्ला को सिरियसली लेते थे, और अब्दुल्ला इस बात को जानता था । उसे मीटिंग खत्म होने की घोषणा कर उन विशेष लोगों से मिलने का प्लान बनाया । उसने इन लोगों से मिलकर एक ऐसी टीम बनाई जो युवाओं को संस्कृति की तरफ लौटाए और बनी हुई व्यवस्था का पालन करे । उन्होंने अपना प्रचार शुरु किया । इस दौरान उन्हें एक दिन मेस कैटगरी वाला सदस्य कहीं और खाता हुआ दिखा । उन्हें अलग-अलग कैटगरी वाले महिला-पुरुष सदस्य साथ दिखे । पहले तो उन्होंने उन्हें समझाने का प्रयास किया फिर उन्हें पीट दिया । इससे युवाओं के साथ-साथ वृद्धों में भी हड़कंप मच गई । युवा इन्क़लाब पर उतारु थे तो वृद्ध उन्हें समझाने में व्यस्त । वे जानते थे कि अब्दुल्ला शक्ति से अधिक युक्ति के द्वारा समुदाय और कैम्पस से बाहर निकलवा सकता है । कईयों को लगता था कि ऐसा पहली बार हुआ है कि समुदाय में विभाजन हुआ । उन्हें इस बात का भी इल्म था कि यह विभाजन इसलिए नहीं हुआ था कि उन्होंने कई विभाजनों को स्वीकार कर लिया था ।
इसके खिलाफ जो भी प्रतिक्रिया करता, उन्हें कुचल दिया जाता । अब्दुल्ला अण्ड कंपनी अघोषित रूप से संसद-न्यायपालिका और मंत्रिमंडल सब बनकर राज कर रही थी । इस दौरान उन्होंने कई घटनाएँ की । उधर दूसरा पक्ष भी लगभग मान चला था कि अब इस सत्ता को चुनौती देना असंभव है । उन्होंने इस तानाशाही को स्वीकार कर लिया था । और इस राज के कई दिन बीत गए ।
कई दिन मतलब कई दिन, कितने दिन पता नहीं । और इतने दिन बहुत ही गुप्त रूप से काजल-फिलिप मिलते थे । एक शाम जब शॉप-कॉम पर इन्सानों की भीड़ थी । कई इन्सान दो नर-मादा इन्सान साथ नहीं दिखते तो, उन्हें अधिक चिन्ता होती है, लेकिन कुत्तों की क्या चिन्ता । बेचारों को मिलाने के लिए इन्सान क्या कुछ नहीं कर सकते थे, लेकिन उन्हें तो अपने ही प्रपंच से फुरसत कहाँ ‼ हर शाम की तरह यहाँ कई इन्सान खा (पी) रहे थे । इसमें उनके प्यारे कुत्ते भी थे । फिलिप और काजोल के मास्टर प्लान की ख़बर अब्दुल्ला को पहले ही हो चुकी थी । उसने अपने साथियों के साथ स्पेशल टास्क फोर्स भी कैम्पस के बाहर से बुला ली थी । वे लोग अपने साथियों के साथ पहले ही घात लगाए बैठे थे । ऐसे में उन्होंने देखा कि बिल्कुल हीरो की तरह काजोल और लगभग उसी तरह फिलिप भी आने लगे हैं । वे साथ में निकल रहे थे कि अब्दुल्ला के एक साथी ने उन्हें मारने को गुस्से में लपकते हुए कहा - “साले इन्सान”
अब्दुल्ला ने उन्हें रोका, क्योंकि वो जानता था, इससे बढ़कर और भी ज्यादा होनेवाला है । और वो यह भी जानता था कि उसका इस प्रकार खुले तौर पर इस प्रेमयुगल पर आक्रमण करने पर कुत्ता कोर कमेटी में उससे इस बारे में सवाल पूछा जाएगा । उसने अपने बाहरी साथियों को कुछ देर रुकने का इशारा किया ताकि सही मौका मिले । और फिलिप-काजोल उस कार्य में जुट गए, जिसे देखकर इन्सानों ने भी अपनी गर्दनें घुमा ली । वह प्रकृति की उस क्रिया को खुले आम करने लगे, जिसे इन्सान भी नहीं करते । उन्होंने कुत्तों के सारे सांस्कृतिक नियमों को उस रूप में धत्ता बताकर प्रेम की अबाध घोषणा कर दी । यह क्रिया समाप्त होने ही वाली थी कि अब्दुल्ला ने अपने साथियों को लगभग उसी मुद्रा में आक्रमण का संकेत में आदेश दिया, जैसे सेनापति अपनी सेना को दिया करता है ।
कैम्पस नास्तिकों की बस्ती है और इसमें रहनेवाले घोर आस्तिक एक ही भगवान पर टिके हैं । वह प्रेम से नफरत करते हैं । यदि वह प्रेम से नफरत नहीं करते, तो उस टीले पर नास्तिकों द्वारा दफ़नाए गए फिलिप-काजोल की कब्र पर भी एखाद बार सजदा जरूर कर लेते । वैसे वहाँ आज-कल इन्सान उस द्रव्य का सेवन करते हैं, जिसे उनकी परम्परा में मदिरा कहा जाता है । अब्दुल्ला ऑल कैम्पस डॉग कोर कमेटी का अध्यक्ष है, जिसका नाम बदलकर विश्वविद्यालय श्वान समिती कर दिया गया है । उसे बाहर के भी उन कॉलोनियों से अब समर्थन मिलने लगा है, जहाँ जाना उसके लिए मना था । कैम्पस में कोई कुत्ता सर उठाकर नहीं चलता, एक इन्सान के शेर का सहारा लेकर कहा जाए तो – चली है रस्म यहाँ कि कोई सर उठाकर न चले ।
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